नारद को किसी ब्लॉग को बिना किसी पूर्वसूचना या व्याख्या के हटाने का अधिकार है। क्योंकि नारद मात्र एक Feed Aggregator है, और लोगों को भ्रम है नारद मे लोकतन्त्र का।
नारद [नारद. अक्षरग्राम.कॉम] के प्रति लोगों का अविश्वास, दोषारोपण आदि हास्यास्पद है। क्योंकि नारद एक फ़ीड संकलक है। ये भी एक भ्रम है, यहाँ तक कि, इस सवाल पर कि, एक वाक्य मे नारद का उद्देश्य क्या है? नारद की ओर से एक जिम्मेदार प्रवक्ता ने नारद को मात्र एक संकलक बताया। पर मुझे ऐसा नही लगता।
नारद के प्रति अभिव्यक्ति की स्वन्त्रता की दुहाई देना, मौलिक अधिकारों आदि की बात करना भी मूर्खता है, क्योंकि नारद लोक-तन्त्र नही है। नारद पर लोकतन्त्र नही हो सकता है।
और भी फ़ीड संकलक हैं, अब नारद ही पर इतना विवाद क्यों:
मात्र इसलिये कि नारद पॉपुलर है नारद के पास एक अदृश्य शक्ति है, सब उसका उपयोग करना चाहते हैं, निजी स्वार्थों तक के लिये, जैसा कि मै भी करता हूँ। इसलिये कि नारद हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये बना है। नारद पर आने के लिये मामूली सी शर्त ये कि आप हिन्दी मे लिखते हैं। आपने एक बार पञ्जीकृत होने के बाद, इसका महत्त्व समझ लिया। एक हिन्दी ब्लॉगर को एक सम्पूर्ण समुदाय मिल गया। अब उसको जो अच्छा लगा, लिखना शुरू कर दिया, उत्साह पूर्वक, क्योकि पता है कि लिखने के बाद कुछ सौ लोगों की निगाह तो उस पर (कम से कम शीर्षक पर) पड़ेगी ही (वास्तव मे ऐसा हो या न हो)।
नारद पर लिखा है
नारद पर आपका स्वागत है। नारद आवाज है हिन्दी चिट्टों की। हिन्दी चिट्ठों को देखने का एकमात्र स्थान। नारद आपका अपना वैब स्थल है, इसे बनाने और सजाने संवारने के लिये आपके सुझावों और आलोचनाओं का हार्दिक स्वागत है।
यह सत्य नही है, क्यों कि इस मे व्याकरण, भाषा एवं तथ्य की गलतियाँ हैं। ये नारद के पृष्ठ से जुड़े लोगों का अपना मामला है, मुझे इस बात से कोई फ़र्क नही पड़ता इसलिये मैं विरोध नही करता, HindiBlogs.Com को विरोध करने का अधिकार है, क्योकि वह एक व्यावसायिक स्थल (जैसा) है, शायद अभी तक नही किया गया इसलिये कि नारद अव्यावसायिक है लेकिन इसके अतिरिक्त भी कुछ कारण अवश्य हैं। फ़िर भी बहुत से लोग इस झाँसे मे आ ही जाते हैं कि नारद ऐसा एक मात्र स्थान है 🙂 ।
अभी अभी एक पोस्ट आयी है
नारद अब जर्मनी बन गया है और उसे लोग तानाशाह। कल को मैं भी कुछ लिखूंगा और नारद जी मुझे भी बाहर कर देंगे। मैं नारद के कारण नही हूँ और न ही मुझे नारद के कारण समझा जाय। नारद के लोग जो चाहे मन मानी करें लेकिन मुझे बख्श दें । नारद जी , मुझे भी आप माफ़ ही करें। मैं भी आपके निर्णय से असहमत हूँ। विरोध स्वरूप मेरा चिठ्ठा भी आप अपने यहाँ से बाहर कर दें।
तानाशाह अब बन गया है, इसका मतलब पहले नही था, मतलब पहले लोकतन्त्र था नारद मे(?)।
मैं यहाँ सेंसर शिप लगवाने नही आया। जो मन करेगा लिखूंगा और नही मन करेगा तो नही लिखूंगा। आख़िर चिठ्ठा किसी की निजी सम्पत्ति होती है और उसमे हस्तक्षेप का अधिकार नारद क्या ब्रम्हा को भी नही दिया जा सकता ।
हास्यास्पद! क्या नारद सेंसरशिप लगा सकता है? किसी के मन को कुछ लिखने से रोक सकता है, या हस्तक्षेप कर सकता है? चिट्ठा निजी सम्पत्ति है, ये सही कहा है।
जब हम या आप अपने चिट्ठे पर नारद के प्रति कुछ भी लिखने से पहले, उसके पीछे के व्यक्ति के बारे मे नही सोचते तो नारद मुनि के ऐसा संदेश लिखने पर क्यो आहत महसूस करते हैं?
Narad Muni said…
यदि आप अपना ब्लॉग नारद से हटवाना चाहते है, तो इत्ती बड़ी पोस्ट लिखने की आवश्यकता नही थी, बस एक इमेल लिख देते, कि आपके ब्लॉग को नारद से हटा दिया जाए।
पता नही क्यों पहले या कभी भी या अब भी, लोग न
रामचन्द्र जी, आपने मेरे मन की बात कर दी !
शब्दः सहमत हूं।
मै खुद चाहूंगा कि इस विवादित चिठ्ठे को नारद मे वापिस जोड़ने की बजाये नारद बंद कर दिया जाये।
नारद पर सवाल उठना उन प्रयासो पर सवाल उठाना है जो कि निस्वार्थ भाव से किये गये थे, जिसके पिछे अपने बहुमूल्य निजी समय के घण्टो बर्बाद किये गये है।
वह भी इसलिये एक गन्दी और घटीया भाषा वाला ब्लाग अलग कर दिया गया।
नारद पर सवाल उठना उन प्रयासो पर सवाल उठाना है जो कि निस्वार्थ भाव से किये गये थे, जिसके पिछे अपने बहुमूल्य निजी समय के घण्टो बर्बाद किये गये है।
आशीष भाई, अब यही तो लोग नहीं समझते। तकनीक की सत्ता की बात की जाती है, यह नहीं पता कि तकनीक की सत्ता है तभी नारद चल रहा है, अक्षरग्राम की साइटों पर रातें काली करके और अपना तकनीकी हुनर लगा के अक्षरग्राम तकनीकी दल ने इन साइटों को इस मुकाम तक पहुँचाया है। बदले में क्या माँगा? कुछ नहीं। यदि किसी दूसरे में तकनीक की सत्ता चलाने का दम है तो भई शौक से आगे आओ और कुछ करके दिखाओ, खाली-पीली हल्ला मचाने से क्या होगा।
रवि जी ने लिख दिया कि नारद के आगे जहाँ और भी है, लेकिन मैं नहीं समझता कि लोगों को बात समझ आएगी। खामखा हिटलरशाही, तानाशाही जैसे अलंकारों से स्तुती की जा रही है जबकि इनके अर्थों से भी अंजान हैं।
गूगल और वर्डप्रैस के उदाहरण दिए जा रहे हैं, बेचारे नासमझ यह नहीं जानते कि यदि आप गूगल के नियम और शर्तों के खिलाफ़ जाओ तो वे भी साइट बैन कर देते हैं, पर्मानेन्टली। कोई लोकतंत्र है क्या? नहीं है जी, वाकई तानाशाही है। जो बन सके उखाड़ लो। यदि तानाशाही नहीं चाहिए थी तो पंजीकरण न करवाते, यदि अब बर्दाश्त नहीं तो अपने रास्ते लगो।
जीतू भाई की नारद उवाच पर की गई पोस्ट को बेतुका बता कहा जाता है कि असभ्य भाषा है, खुलकर चुनौती दे रहे हैं। तो भई दे रहे हैं तो दे रहे हैं, चुनौती देना क्या किसी की बपौती है कि दूसरा बन्दा नहीं दे सकता। आपको स्वीकार है तो आगे आओ नहीं तो कट लो! खामखा का हल्ला मचा रखा है। इनको कोई गन्दा नैपकिन कह दे फिर देखो कैसा रोना-पीटना चालू होगा इनका!!
मै राम चन्द्र जी, अशीष जी और अमिज जी सभी की बात से पूर्ण सहमत हूँ।
सही बात है कि जो लोग कुछ नही करते वे ज्यादा हल्ला मचाते है। नारद एक सामूहिक प्रयास है, जिसका हम सभी को सम्मान करना चाहिये। कुछ गलत हो तो विरोध भी जायज है किन्तु हमेशा विरोध भी उचित नही है।
जीतू जी और नारद के कर्त्ताधत्ता को पूरी छूट है कि सर्वजन की अपत्ति पर निर्णय ले सकते है।
नारद से आगे बहुत कुछ है किन्तु उन्के लिये जिनके पास ब्लागिंग के आलावा कोई काम नही है। अभी बहुत से ऐसे लोग है जिनके लिये नारद और हिन्दी ब्लाग्स ही सहारा है।
नारद के जरिये विवदित ब्लागों को अपनी कच्ची रोटी सेकने का अधिकार नही देना चहिये।
मिसिरजी, आपने लेख बहुत अच्छा लिखा।
मैं अभी भी मानता और कहता हूं कि नारद मात्र एक संकलक है। बाकी चीजें इसी प्रक्रिया की वजह से बनीं।
यह कुछ ऐसा ही है जैसा कि कुछ दिन पहले टिस्को का एक विज्ञापन आता था जिसमें उनकी तमाम अच्छाइयां/उपलब्धियां बताने के बाद बताया जाता है
हम स्टील भी बनाते हैं।
ऐसे ही नारद अगर चिट्ठे संकलित करना बंद कर दे तो इसकी सारी जुड़ी गतिविधियां/गौरव सारहीन हो जायेंगी।
जहां तक कि लोकतांत्रिक होने की बात है तो आपसी सहमति के आधार पर निर्णय होने के कारण मैं इसे लोकतांत्रिक मानता हूं।
नारद पर प्रयुक्त भाषा के बारे में व्यक्ति-व्यक्ति में अंतर होगा। आप उसे कुछ गलत नहीं मानते लेकिन मुझे लगता है कि एक सेवा प्रदाता होने के नाते प्रवक्ता की भाषा और संयत हो तो बेहतर है। आप जो ठीक समझें वह करें लेकिन अगर आप सवाल पूछने का हक किसी को देते हैं तो अपनी मर्जी का सवाल पूछने का उसका हक है।
आपकी मेहनत का अंदाजा वही लगा सकता है जो आपसे किसी न किसी रूप में जुड़ा रहा है। अगर वे नहीं समझना चाहते तो आप इसे उनपर थोप नहीं सकते। 🙂
बकिया चकाचक!
बहुत ही शानदार, तथ्यपूर्ण, निष्पक्ष और मौलिक लेख! इतना अच्छा विश्लेषण आप जैसे शोधार्थी ही कर सकते हैं।
“यह सत्य नही है, क्यों कि इस मे व्याकरण, भाषा एवं तथ्य की गलतियाँ हैं।”
आपकी बात से सहमत हूँ। नारद हिन्दी चिट्ठे देखने हेतु एकमात्र स्थान नहीं, हिन्दीब्लॉग्स.कॉम सहित कई अन्य संकलक यह काम करते हैं। यद्यपि इनमें अभी तक केवल नारद और हिन्दीब्लॉग्स.कॉम ही यह कार्य अच्छी तरह करते हैं बाकी किसी का काम संतोषजनक नहीं।
इनकी बात सही है, कल को वे भी आयेंगे तो क्या उनसे संवाद करना ही गर्व की बात है? वो इसलिये आयेंगे कि वे अपने विचार फ़ैला सकें आपकी और हमारी बात सुनने के लिये नहीं आयेंगे
बात है।
यही बात तो मैं समझाना चाहता हूँ, आज कुछ वामपंथी साथियों का बात करने का तरीका तो सब देख ही रहे हैं, ये किसी प्रकार का तर्क सुनने को तैयार ही नहीं तो मसिजीवी जी किस प्रकार आशा करते हैं कि आतंकवादी आएंगे तो वे हमसे संवाद करेंगे।
आपने सही कहा कि नारद एक लोकतंत्रात्मक व्यवस्था न है न हो सकता है, यहां इस तरह के मुद्दों पर आम सहमति की बात की गई तो उसे लोगों ने लोकतंत्र का नाम दे दिया। माना कल नारद को अपडेट करना हो तो क्या उसके लिए वोटिंग कराई जाएगी? बल्कि कोई भी इस तरह का तकनीकी उपक्रम लोकतंत्रात्मक व्यवस्था हो ही नहीं सकता।
आज हर कोई नारद को मुक्त कंठ से गरियाने चला आता है, कुछ लोग कहते हैं कि उनको नारद की जरुरत नहीं, नारद ने उनका कुछ भला नहीं किया। इससे बड़ी कृतघ्नता और क्या हो सकती है। नारद एक नए चिट्ठे को पहचान देता है, उसे स्थापित करता है, विभिन्न चिट्ठाकारों से संवाद के लिए एक मंच देता है। आज मेरी चिट्ठाजगत में जो थोड़ा बहुत स्थान है वो नारद की वजह से। नारद न होता तो बहुत से चिट्ठे कब का लिखना बंद कर चुके होते। मैं नए चिट्ठों की खोज करते हुए ऐसे बहुत से चिट्ठों तक पहुँचा जो कि प्रोत्साहन न मिलने से शुरुआत में ही दम तोड़ गए। किसी एग्रीगेटर पर न होने से उन तक पाठक पहुँच नहीं पाए जिससे उन्हें लगा कि उनका लिखा कोई पढ़ने वाला नहीं है। इस तरह के कुछ चिट्ठों की सूची आप यहाँ देख सकते हैं।
जिन लोगों को लगता है कि नारद तानाशाह है, तकनीक की सता चला रहा है वे जबरदस्ती इस तानाशाही में क्यों रह रहे हैं, किसी ने उन्हें पकड़ तो नहीं रखा। वे अपना अलग लोकतांत्रिक समूह/एग्रीगेटर बनाकर वहाँ क्यों नहीं चले जाते। जबरदस्ती तानाशाही व्यवस्था में क्यों जी रहे हैं?? नारद से हटने की प्रक्रिया सबको मालूम है, जिनको जाना होता है वो चुपचाप चले जाते हैं जैसे सागर भाई चले गए थे। लेकिन कुछ लोग जानबूझकर हमदर्दी बटोरने के लिए हटाने को कहने के लिए पोस्ट लिखकर नौटंकी करते हैं ताकि शहीदाना सुख हासिल कर सकें।
बहुत ही संतुलित लेख ।
और आपके “क्योंकि” के जवाब से सहमत हूँ।
लियो मिश्रा जी
आप तो पूरी की पूरी पौथी ही खौल दिए। चलिए अब सभी को हमरा पता पता चल गया है तो आगे से सभी टिप्पणियाँ डाक द्वारा भेजी जावें।
मिर्ची सेठ
अच्छा विश्लेषण किया है.
हिटलर, तानाशाही, क्रांति, गांधी, मार्क्स, सर्वहारा, सांप्रदायिकता जैसे भारी-भरकम शब्दों के सहारे वास्तविकता को झुठलाया नहीं जा सकता कि नारद के संचालकों को अपने फ़ैसले लेने का अधिकार है. फ़ैसले को बदलने का आग्रह करना एक बात है, उसके लिए ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद करना बिल्कुल अलग बात है.
धुरविरोधी के चिट्ठा लिखना बंद करने पर मर्सिया पढ़ा जाना भी हास्यास्पद है. उनका व्यक्तिगत फ़ैसला है तो भी फ़ैसला बदलने का आग्रह ज़रूर किया जाना चाहिए. लेकिन रोना रोने की ज़रूरत कहाँ से आती है. किसी को संदेह नहीं कि धुरविरोधी की क़लम में ताक़त है, और एकमात्र संभावना यही बनती है कि वो अपने लेखन का कहीं बेहतर उपयोग करेंगे. और क्या पता किसी और नाम से दोबारा नारद या अन्य संकलकों पर चिट्ठावाचकों के हित में वापस भी आ जाएँ. हमारी शुभकामनाएँ!
बहुत अच्छा लिखा है, मिश्राजी। मैं आपसे सहमत हूँ।